Karnataka King : जिसको बनना था किंगमेकर वो ही बन गया किंग और जिसको बनाना था किंग वो बन गया जोकर.....

क्या इस सियासी जुगलबंदी से 2019 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस या राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद की कुर्बानी देनी पड़ेगी...? 


देवेगौड़ा के पुत्र कुमारस्वामी ने यह साबित कर दिया कि वो किंग-मेकर नहीं बल्कि सियासी महकमे के किंग हैं | सियासी उठा-पटक के बाद येदियुरप्पा को इस्तीफा जरूर देना पड़ा लेकिन अपनी जुबां की कदर के साथ उन्होंने हवाई तीर के सहारे 17 मई को कर्नाटक के वजीर-ए-आला बनकर ही माने | यहां कुमारस्वामी जब शपथ ले रहे थे तो उनके अंदर छिपा विश्वास इस लहजे से उमाल मार रहा था कि “मैं कुमारस्वामी मुख्यमंत्री की शपथ.........” | इसे किस्मत कहें या कोई सियासी रणनीति या उनका आत्मविश्वास कि वोट की गिनती के बीच में ही ऐलान कर दिया था कि कर्नाटक के किंग तो वो ही बनेंगे |
यही नहीं इस कर्नाटक के नये किंग के राजतिलक में बेशुमारी विपक्षी एकजुटता आकर्षण का केंद्र बिंदु रहा | बीजेपी निर्मित एनडीए को छोड़ सभी विपक्षी नेता कुमारस्वामी के राजतिलक समारोह के साक्षी थे | पूर्व से पश्चिम तक सभी बड़े-बड़े  राजनीतिक सुरमाओं ने इसमें शिरकत की थी | यदि अप्रत्यक्ष रूप से देखें तो बीजेपी निर्मित एनडीए से भी सदर-ए-रियासत इसका हिस्सा बनें थे | (इस टिप्पणी के लिए मैं व्यक्तिगत रूप से संवैधानिक पदस्त सदर-ए-रियासत से माफ़ी मांगता हूं)

कुमारस्वामी को कर्नाटक के मुख्यमंत्री की शपथ दिलाते राज्यपाल 
क्या यह महागठबंधनकारियों का डर-बंधन तो नहीं...?

देश में किसी भी चुनाव की तरह कर्नाटक चुनाव भी घोर जातिवाद, धर्म-शर्म निरपेक्षक तरीके से लड़ा गया, जहां एक तरफ लिंगायत को हिंदू धर्म से अलग कर नये धर्म का दर्जा दिए जाने के समीकरण बन रहे थे वहीं वोक्कालिगा समुदाय भी सियासी गर्जना में बना हुआ था | कांग्रेस( बीजेपी भी) द्वारा सभी मोर्चों पर धार्मिक समीकरणों की बाढ़ की जा रही थी | मायावती भी दलितकरण के समीकरण लगाने उत्तर के छोर से दक्षिण के छोर तक जा पहुंची |
जेडीएस का सियासी मुकाम हासिल करने के बाद तीसरे मोर्चे के बनने में भी खेमेबाजी देखने को मिली | एक गैर-बीजेपी और दूसरा गैर-कांग्रेस दल और नेता कुमारस्वामी के शपथ लेने के मौके पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से लेकर केरल के पिनराई विजयन तक - और यूपी के दोनों क्षत्रप मायावती और अखिलेश यादव भी शामिल हुए | दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और आंध्रप्रदेश के सीएम चंद्रबाबू नायडू भी विपक्षी एकता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने की होड़ में हैं | शायद तेलंगाना के सीएम के चंद्रशेखर राव भी होते, लेकिन उन्हें कुछ जरूरी काम याद आ गया होगा | मंच की शोभा बढ़ाने के लिए सीताराम येचुरी, तेजस्वी यादव और कमल हासन भी शामिल थे |
तीसरे मोर्चे की शुरूआती समीकरण अगर देखें तो 2017 के राष्ट्रपति चुनाव के वक्त कांग्रेसी भोज में बबुआ और बुआ तो मौजूद रहे लेकिन अरविंद केजरीवाल न्योता न मिलने के चलते दूर रहे | कुछ ऐसा ही हाल चेन्नई में एम करुणानिधि के जन्मदिन और फिर आरजेडी की लोकतंत्र बचाओ रैली में रहा | कोई न कोई किसी न किसी मतभेद के चलते एक दुसरे से दूर ही रहा | लेकिन कुमारस्वामी का राजतिलक विपक्षी जमावड़ा का केंद्र रहा | जो गत ऐसे किसी भी इवेंट में देखने को नहीं मिला | हर मंच पर कोई न कोई गैरहाजिर रह ही गया है, वहज भले ही हर बार अलग अलग रही हो | 2015 में महागठबंधन के बैनर तले चुनाव लड़े नीतीश कुमार का राजतिलक और 2016 में ममता के दोबारा सत्ता में लौटने का अवसर भी इतना शानदार नहीं रहा हो | वैसे तब से अब तक सभी सियासी समीकरण काफी बदल भी चुके हैं |

राजतिलक से पहले श्रृंगेरी पहुंचे कुमारस्वामी का कहना रहा कि - "केवल मुझे नहीं, हमारे लोगों को भी संदेह है, और राज्य के लोगों को भी संदेह है कि ये सरकार सही तौर तरीकों से काम कर पाएगी या नहीं..? लेकिन मुझे भरोसा है..." हालांकि, ये भरोसा कुमारस्वामी को भगवान भरोसे ही है, ऐसा उनका भी साफ तौर पर कहना है |

कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण में सियासी चेहरों का सियासी जमावड़ा 
खैर, राजनीतिक विचार धारा के लहजे में यह महागठबंधनकारियों का जमावड़ा किसी डरबंधन से कम नहीं, क्योंकि इसका प्रमाण कांग्रेस ने जेडीएस को विवशतावश समर्थन देकर दे दिया है | यह सियासी जमावड़ा भी इसी डरबंधन का एक पहलु है |

क्या मात्र सत्ता के लोभ और बीजेपी को रोकने के लिए कांग्रेस और उसके अपरिपक्व अध्यक्ष ने सिद्धारमैया की राजनीतिक हत्या तो नहीं की...?

यह सभी जानते हैं कि सिद्धारमैया ने कांग्रेस और कर्नाटक के लिए बहुत मेहनत की है | अपने दम पर कांग्रेस को मजबूत करने के लिए दो सीटों से चुनावी दाव पेश किया | भले ही एक सीट पर बुरी तरह हार का सामना भी करना और एक सीट पर लगभग 1500 वोटों के अंतर से जीत दर्ज की | लेकिन जीत तो जीत ही गिनी जाती है | क्या जनादेश में दूसरा स्थान प्राप्त कांग्रेस के अध्यक्ष जेडीएस पर इस तरह दवाब नहीं बना सकते थे कि जितना वो जेडीएस को समर्थन कर रहे हैं उतना जेडीएस उनको समर्थन करती..?
जिस तरह बीजेपी ने यदियुरप्पा को अपना नेता चुन लिया उसी प्रकार कांग्रेस को भी अपना नेता चुन जेडीएस को समर्थन देने से पहले उनसे सीधे तौर पर समर्थन मांगने का दांव चलना चाहिए था..?
यदि साफ़ तौर पर देखा जाए तो यही साबित होता है कि कांग्रेस और उसके अपरिपक्व अध्यक्ष ने सिद्धारमैया की राजनीतिक हत्या की है | इसका आभास उनको वोटिंग के मध्य में ही हो गया था जब उनके घर के आस-पास मात्र सन्नाटे के अलावा और किसी भी समर्थक की दस्तक नहीं थी | कांग्रेसी आलाकमान और उसके अपरिपक्व अध्यक्ष के दवाब के चलते उन्हें इस गेम से दूर रखा गया कि यदि सिद्धारमैया अपना दांव पेश करते तो शायद जेडीएस का बीजेपी के पाले में जाना निश्चित था |

कर्नाटक चुनाव के दौरान सिद्धारमैया 
 2019 के लिए सियासत की साज पर 'कर्नाटक मॉडल'...

2014 का लोक सभा चुनाव बीजेपी ने गुजरात मॉडल, कांग्रेस के घोटाला मॉडल और महंगाई के मॉडल की एवज में लड़ा था और दिल्ली दरवार में अपना अधिकार जमा लिया था | जिसमें ममता छोड़ पूरा विपक्ष बुरी तरह मोदी लहर की चपेट में आकर तहस-नहस हो गया था | उसके बाद से ही बीजेपी को चैलेंज करने के लिए विपक्ष एकजुट होने की लगातार कोशिश कर रहा है, लेकिन बार-बार बिखर जाता है | अब 2019 के लिए विपक्ष के हाथ कर्नाटक मॉडल लगा है | इस कर्नाटक मॉडल में पहले अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस का मालिकाना हक रहा | विवशता के इस बधन के पहले कांग्रेस अपने कर्नाटक मैनिफेस्टो को 2019 का ब्लू प्रिंट बता रही थी | कांग्रेस के नजरिये से तो ये विकास का मॉडल रहा, लेकिन अब वो 'गठबंधन का मॉडल ' बन चुका है |
'कर्नाटक मॉडल' अब गठबंधन का स्वरुप बन गया है जिसमें कांग्रेस ने सिद्धारमैया की कुर्बानी दी | अगर 2019 में भी यही मॉडल कायम रहता है तो कांग्रेस को कर्नाटक में मुख्यमंत्री पद की तरह ही प्रधानमंत्री पद की भी कुर्बानी देनी पड़ सकती है |

भारत की जनता के जनादेश में कर्नाटक मॉडल पास होगा...?

एक मियान में इतनी सारी तलवारों को जगह मिल पाना असंभव सी स्तिथि है लेकिन क्या कांग्रेस प्रधानमंत्री पद की कुर्बानी दे पाएगी ? जहां गुजरात चुनाव से राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने का ख्याली पुलाव बनाने में लगे हैं अगर 'कर्नाटक मॉडल ' पर कांग्रेस मजबूरन ही सही, राजी हो गयी तो राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने का क्या होगा ?  वैसे राहुल गांधी ने कंडीशन तो लगा ही दी है, अगर कांग्रेस को बहुमत मिला तो | अगर पहले से ही ये बात दिमाग में रही तो क्या कार्यकर्ताओं के उत्साह पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा ?

सीपीएम नेता सीताराम येचुरी कर्नाटक के कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन को यूपी के एसपी-बीएसपी गठबंधन जैसा बताया है | येचुरी के ख्यालों के अनुसार 'लेफ्ट का विश्वास है कि पहले राज्य में बीजेपी के विरोध में गठबंधन सरकार बने और फिर ऐसी ही महागठबंधन एकता की कोशिश 2019 लोकसभा चुनावों के लिए की जाये, तो बीजेपी को उखाड़ फेंकना आसान होगा |”

2019 लोकसभा चुनाव का एक सियासी प्रतिबिंब...

ममता बनर्जी, पी. विजयन और अरविंद केजरीवाल के साथ कांग्रेस का मंच शेयर करना देश की मौजूदा राजनीति में कोई मामूली संयोग तो कहा नहीं जा सकता | कांग्रेस केजरीवाल को अपने छोटे-बड़े आयोजनों से दूर रखती आयी है | वहीं ममती की सलाह को भी कांग्रेस नेतृत्व ने नजरअंदाज ही किया है | कर्नाटक में भी मुख्य कर्ताधर्ता कांग्रेस ही है लेकिन आयोजन का रोडमैप पूरी तरह उसका नहीं है | कर्नाटक चुनाव से पहले ममता बनर्जी ने कांग्रेस को 2019 के लिए न्योता दिया था, लेकिन कांग्रेस नेताओं ने उनके कोलकाता पहुंचने तक नामंजूर कर दिया था | विपक्षी एकजुटता का सवाल वहीं आकर अटक रहा है कि - क्या कांग्रेस या राहुल प्रधानमंत्री पद की कुर्बानी देने को तैयार होंगे ? सियासी वास्तुशास्त्र तो यही है कि ध्रुविकारी विपक्ष 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता | कांग्रेस के साथ बाकी विपक्ष की एकजुटता मजबूत कड़ी तो जरुर है लेकिन यही इनकी कमजोर कड़ी भी है कि प्रधानमंत्री कौन..? क्या विपक्ष कांग्रेस के अपरिपक्व अध्यक्ष के नाम पर राजी होगा या  मान भी लें कि राहुल प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी छोड़ भी दें तो देखने लायक यह होगा कि आखिर कौन इस पद का दावेदार होगा |
जिसका पहला और आखिरी सीधा-सीधा रास्ता तो यही बचता है कि सीटों की संख्या के हिसाब से प्रधानमंत्री की दावेदारी तय हो | छोटे विपक्षी नेताओं को ये शायद ही मंजूर भी हो क्योंकि उत्तरप्रदेश और बिहार को छोड़ दें तो देशभर में अभी तक कोई ऐसी पार्टी नहीं दिखती जो कांग्रेस से ज्यादा सीटें लाने की कुव्वत रखती हो | एकजुट विपक्ष में भी कई नेताओं को राहुल गांधी का नेतृत्व कतई मंजूर नहीं होगा | सभी नेता एक बार सोनिया के नाम पर तो तैयार हो सकते हैं, लेकिन राहुल के नाम से सभी दलों को हद से ज्यादा परहेज है |

कांग्रेस जैसा दूरगामी दल यदि विपक्षी एकजुटता के दलदल में फंस रहा है या सभी दलों को समर्थन दे रहा है (ले नहीं रहा) इसका सीधा सा यही मतलब निकलता कि कांग्रेस अब उस वृद्ध दम्पति की तरह हो गयी है जो संतानहीन है या जिसको उसकी संतानों ने छोड़ दिया है | अब उस वृद्ध दम्पति को आस-पड़ोस के लोग ही उनका दाना-पानी का इंतजाम कर रहे हैं | क्योंकि यदि ऐसा नहीं है तो कांग्रेस खुद को अपने दम पर खड़ा करे और इन सभी क्षेत्रीय दलों के अभिमान से ऊपर उठ गया अपना स्वाभिमान के नीचे इन छोटे-बड़े दलों को जगह दे | नहीं तो यही दल लोकसभा चुनाव में कर्नाटक चुनाव की भांति अपने अभिमान के तले कांग्रेस के स्वाभिमान को रौंदते नजर आयेंगे और कांग्रेस कर्नाटक की तरह ही 2019 का चुनाव जीत कर भी हार जाएगी |

केंद्र सरकार के 4 साल का जनता को जश्न का खोखला न्योता 
फ़िलहाल देश महंगाई, बेरोजगारी आदि के दौर से गुजर रहा है और मोदी सरकार चार साल के जश्न की तैयारियों में जुटी है, पहले कर्नाटक का हाथ में आकर हाथ से निकल जाना और फिर विपक्षी एकता की नींव पड़ते दिखायी देना बीजेपी के लिए बेहद गंभीर तो नहीं लेकिन चिंता का सबब जरुर है | फ़िलहाल बीजेपी के लिए राहत की एक ही बात है जिसकी चर्चा देश भर में हो रही है वो है - क्या कर्नाटक गठबंधन 2019 तक बने रहेगा या ? वो भी तब जब बीजेपी सरकार को गिराने मौका मिलता रहे ? अगर ऐसा सब मुमकिन है तो 2019 के लिए कर्नाटक मॉडल के कामयाबी विपक्ष की एकजुटता का बड़ा उदाहरण बनके उबरेगी और यदि ऐसा नहीं होता है तो एक बार फिर कांग्रेस समेत सारा विपक्ष राजनीति का उपहास अध्याय अंक का हिस्सा बना जायेगा |

क्योंकि राजनीति के अपने वसूलों में कहावत है कि -

समझने ही नहीं देती सियासत हम को कोई सच्चाई, क्योंकि यहां कभी चेहरा नहीं मिलता तो कभी दर्पन नहीं मिलता...



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