देश और उत्तराखंड ने खोयी अपनी एक और विरासत...
कल सोशल मीडिया के जरिये पता लगा कि अब हमारे बीच उत्तराखंड राज्य से
पहले कीर्ति चक्र विजेता और द्वितीय विश्व युद्ध के योद्धा लेफ्टिनेंट कर्नल इंदर
सिंह रावत जी नहीं रहे | कर्नल साहब लगभग 104 वर्ष के थे | गुरुवार की सुबह देहरादून
में उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली । उनको उनके सफल और प्रेरणामयी जीवन की आखिरी
सलामी गुरुवार को हरिद्वार स्तिथ घाट दी गयी | कर्नल रावत को पूर्वोत्तरी राज्य नागालैंड
में नागा विद्रोह को काबू करने के लिए में 1957 में कीर्ति चक्र से नवाजा गया था |
मुझे ज्यादा जानकारी नहीं थी कर्नल रावत जी | मात्र इतना पता था कि गढ़-कुमौ
क्षेत्र से (अब उत्तराखंड) से पहला कीर्ति चक्र लाने वाले योद्धा यही हैं | सन
2012 में Garhwal Post नाम के पोर्टल में बड़े भाई
देवेन्द्र बुडाकोटि जी द्वारा कर्नल रावत जी के साथ साक्षात्कार भेंट के माध्यम से
उनके विचारों को और अधिक पढने का मौका मिला |
Kirti Chakra awardee & II-World War veteran Lt Col Inder Singh Rawat |
पौड़ी गढ़वाल जिले में थैलीसेंण ब्लॉक के बगेली गांव (राठ क्षेत्र) में
30 जनवरी 1915 जन्मे कर्नल रावत ने गांव से प्राथमिक स्कूली शिक्षा प्राप्त की थी ।
माध्यमिक शिक्षा के लिए वे खिर्सू बोर्डिंग स्कूल आगये थे | जो कि उनके गांव से
लगभग 50 किलोमीटर
दूर था । इस विद्यालय को ऐतिहासिक रूप से प्रसिद्ध गढ़वाली लोक गीत "किरशु
बोर्डिंग लगुचा निपाणी का डांडा" ने चिरजीवी बनाया । इसका अर्थ है कि किर्शू
बोर्डिंग स्कूल पानी के बिना एक ऐसा धार का क्षेत्र है पहाड़ों से घिरा हुआ है | यह
बोर्डिंग स्कूल अंग्रेजो के जमाने से है |
इसके बाद कर्नल रावत की मेट्रिक की पढाई पौड़ी के मिशन स्कूल से हुई | इसके
बाद शिक्षा त्याग कर वे अगस्त 1934 में गढ़वाल राइफल्स में एक सैनिक के रूप में
शामिल हो गए और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पूर्वी अफ्रीका में इटेलियन सेना के
खिलाफ में लड़े | अपने समझदारी भरे रुतबे, मेहनत के कारण चालीस साल की उम्र में ये
सेना में सिपाही से अफसर पर काबिज हो गये | अफसर पद मिलने के बाद बर्मा इन्फेंट्री
और उसके बाद गढ़वाल राइफल्स में भी अपनी सेवायें दी | सन 1957 के दौर में अपने पचासवें
दशक में असम राइफल्स द्वारा नागालैंड में नागा विद्रोह को काबू करने के लिए में कीर्ति
चक्र से नवाजा गया था |
गढ़वाल राइफल्स में अन्य रैंकों में बलों में शामिल होने के बाद,
उन्होंने द्वितीय
विश्व युद्ध में भाग लिया और पूर्वी अफ्रीका में कार्रवाई में शामिल थे। अपने कड़ी
मेहनत और दृढ़ संकल्प के माध्यम से, उन्हें पूर्व-स्वतंत्रता युग में अपने पचास
वर्षों में तत्कालीन बर्मा इन्फैंट्री में कमीशन किया गया। बाद में वह देश की
आजादी के बाद रॉयल गढ़वाल राइफल्स में शामिल हो गए। 1962, भारत-चीन युद्ध में उन्होंने अरुणाचल क्षेत्र में 4 गढ़वाल राइफल्स की
कमान सौंपी गयी | भारत-चीन युद्ध के बाद गठित भारत-तिब्बत सीमा पुलिस बल
(आइटीबीपी) की पहली बटालियन का दारोमदार भी कर्नल रावत के कंधो पर सजाया गया | ग्वालदम
में भी आइटीबीपी की दूसरी बटालियन को उन्होंने स्थापित किया। गढ़वाल राइफल्स,
असम राइफल्स व
आइटीबीपी में 37 साल की सैन्य सेवा के बाद कर्नल रावत वर्ष 1970 में रिटायर हुए।
सेवानिवृत्ति के बाद भी वह सामाजिक क्रियाकलापों से जुड़े रहे।
1966 में सैन्य सेवा से सेवानिवृत्त होने के बाद भी, कर्नल रावत राज्य
में पूर्व सैनिकों के कल्याण के लिए सबसे आगे काम कर रहे थे। उन्होंने सामाजिक
कारणों में भी सक्रिय रूप से योगदान दिया। लेफ्टिनेंट कर्नल रावत कई लोगों के लिए
एक प्रेरणा-श्रोत थे । वह सेना अधिकारी के रूप में बहादुरी के कार्य के कारण नहीं
बल्कि अपने शारीरिक फिटनेस के कारण भी थे । वह अपने आखिरी दिनों तक भी सक्रिय थे ।
फरवरी 2014 में,
उन्होंने गढ़वाल
राइफल्स ऑफिसर्स एसोसिएशन के साथ अपने 100 वें जन्मदिन का जश्न मनाया, विशेष रूप से उन्हें
भव्य शैली में सम्मानित किया गया ।
कर्नल रावत की जीवनी से जुडी कुछ बातें भी हैं जो उन्होंने अपनी
आत्मकथा से जुड़े संस्मरण में लिखे हैं कि शादी के सात साल तक वह अपनी धर्मपत्नी की
सूरत तक नहीं देख सके थे । वर्ष 1932 में 18 वर्ष की उम्र में उनका विवाह हो गया
था और विवाह के बाद सैन्य सेवा के तहत देश से बाहर तैनात थे ।
आज कर्नल रावत हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका आदर्श, अदम्य शौर्य, कार्य
करने की क्षमता और उनकी फिटनेस आज भी युवाओं लिए प्रेरणा का स्रोत बनी रहेंगी |
देश, समाज और संस्कृति के प्रति अपनी सेवा देने के लिए यह आपके मुल्क के रैबासी आपके ऋणी रहेंगे...🌹🌹🌹!
कर्नल रावत आप हमारी यादों में सदैव जीवित रहेंगे |
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