आपातकाल लगने से पहले भी मुझे कई बातें बहुत कचोटती थी। तब तो बिल्कुल होश ही संभाला था। पाकिस्तान के साथ युद्ध या कहें बाग्लादेश विभाजन। उस समय हमारे यहां बिजली नहीं थी। युद्ध छिड़ गया था। देश में ब्लैक आउट की घोषणा हो गई। आदेश आया कि घरों में लाइट न जलायें। हमें घर वालों ने बताया कि जहां लाइट जलेगी ‘भुटवा’ (जुल्फकार अली भुट्टो) बम गिरा देगा। ईजा दिन में ‘लम्फू’ (मिट्टी तेल से जलने वाला लैम्प। शायद लैंप से ही लम्फू बना होगा) के लिये कपड़ों की बाती बनाकर रखती। उन्हें साफ-सुथरा कर जलाने के लिये तैयार करती। मुझे डर लगता कि अगर लाइट जलेगी तो भुट्टो बम डाल देगा। मैं शाम होने से पहले स्कूल के पीछे बनी झाड़ियों में ‘लम्फू’ छुपा आता। यह बात तो आज तक भी पता नहीं चली कि लाइट देखकर भुट्टो ने कहीं बम डाला हो, लेकिन भुट्टों का भय बहुत बाद तक मेरे मन से गया नहीं। मुझे सुलाने और खिलाने के लिये भी ‘भुट्टो’ का ही इस्तेमाल किया जाता।
अंधेरी काली रातें। तारों से भरा आसमान।
कड़कड़ाती ठंड़। चांद भी जैसे सुबह होने का इंतजार कर रहा हो। अभी ‘ब्यांण
तार’ आने में देर थी। घाटी में बसे इस छोटे से कस्बे के चारों ओर गांव ही
गांव। कहीं कोई आहट नहीं। चिड़ियों ने भी अपना ‘घोल’ नहीं
छोड़ा है। रात खुलने के अभी कोई संकेत नहीं। दूर शियारों की ‘टुक्याव ’
(बोलने
की आवाज) अभी आयी नहीं। बगल के गांव रावलसेरा के मुर्गे तो और देर में बांग देते
हैं। बाहर खेतों में दूर तक बिछी ‘तुषार’ (रात को गिरी ओस
का सख्त होना) की सफेद चादर। जहां पानी रुका हैं वहां ‘खांकर’ (पानी
का जमना) जम गई है। सोचता था पिताजी इतनी जल्दी उठ क्यों जाते हैं? स्कूल
जाने का समय भी दस बजे का है। इतनी जल्दी पिताजी जाते कहां हैं? ईजा
से एक-दो बार पूछा तो वह भी टाल गई। बहुत बाद में पता चला कि देश में आपातकाल लगा
है। सरकारी कर्मचारियों से सख्ती है। नौकरी बचानी है तो इंदिरा गांधी का फरमान
मानना है। पिताजी भी आपातकाल के एक किरदार थे। सरकारी मुलाजिम। अपनी नौकरी बचाने
के लिये अनुशासन में बंधे। उन्हें नसबंदी के केस लाने थे। नहीं लाते तो वेतन नहीं
मिलता। अल्मोड़ा जनपद के दूरस्थ क्षेत्र में बसा है बग्वालीपोखर (अब तो बहुत बड़ा
बाजार है। देश के किसी भी कोने के लिये सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ।) यहीं इंटर कालेज
में पिताजी प्रधानाचार्य थे। मैनेजमेंट का स्कूल था। सरकारी सहायता प्राप्त।
कांग्रेस के कई बड़े नेता इस विद्यालय से जुड़े थे। यही वजह थी कि बहुत जल्दी इसे
इंटर तक की मान्यता मिल गई थी। उन दिनों स्कूलों को मान्यता मिलने का मतलब एक बड़ी
क्रान्ति का होना था। हम इसी विद्यालय के एक दुमंजले में रहते थे। यहीं से देखा
मेरे बालमन ने आपातकाल के दमन को। पिताजी की मजबूरियों को और जनता के संकटों को।
शायद इसी ने मेरे अंदर भरा व्यवस्था के खिलाफ गुस्सा। यह भले ही उस समय प्रत्यक्ष
रूप से प्रकट न हुआ हो, लेकिन इसने प्रतिकार के बीज तो बो ही दिया था ।
आज इतने वर्षो बाद आपातकाल याद आ गया। वह मेरी
स्मृतियों में ज्यों का त्यों है। आज भले ही वैसी भोर न होती हो। ‘ब्याणी
तार’ न देखे हमें दशकों गुजर गये। ‘खांकर’ अब
जमती नहीं। ‘तुषार’ अब पड़ती नहीं। बग्वालीपोखर गांव नहीं
रहा। शहर हो गया है। रावलसेरा के चतुर सिंह जी की बैठक अब वैसी होगी नहीं। उसने भी
आधुनिक रूप ले लिया होगा। लेकिन हमारी चेतना के लिये इनका होना काफी था। पिताजी
बहुत सुबह निकल जाते थे किसी गांव में। नसबंदी के ‘कैस’ लेने।
उन दिनों इन्हें ‘कैस’ ही कहा जाता था। इंदिरा गांधी ने
परिवार नियोजन की घोषणा कर दी थी। इसका सख्ती से पालन किया जाना था। नसबंदी के
शिकार भी गरीब-गुरबे ही होते थे। उन्हें सरकार की ओर से 15 रुपये और एक
कंबल दिया जाता था। उन दिनों नसबंदी बहुत कष्टकारी ओपरेशन भी माना जाता था। जिनकी
नसबंदी करानी हो उन्हें बहुत समझाया जाता था कि इसमें तुम्हारी ताकत में कोई फर्क
नहीं पडे़गा। महिलाओं के संबंध में तो यह और भी पैचीदा था। इसी जद्दोजहद में
पिताजी सुबह निकल जाते थे। फिर जिस दिन नसबंदी करानी होती उन्हें रानीखेत या
द्वाराहाट अस्पताल भी ले जाना होता। मरीज के खुराक की व्यवस्था भी करनी हुई।
नसबंदी के कैंप भी लगते थे। बहुत दमन हुआ जनता का। गरीबों के अलावा संजय गांधी के
नेतृत्व में आपातकाल ने जो जुल्म ढाये उसमें विधवाओं और कुंआरों की नसबंदी भी शामिल
थी। गरीबों को कंबल और पैसे का लालच था, कर्मचारियों को अपनी नौकरी बचाने की
चिंता।
कैसा सहा होगा आपातकाल को पहाड़ ने |
The Hindu में प्रकाशित राष्ट्रीय आपातकाल की खबर (फोटो साभार - गूगल) |
आपातकाल का मतलब तो बाद में समझ आया, लेकिन
बालमन में उसकी छाप गहरे तक पड़ी। उसकी वजह सत्तर का वह दशक था जिसमें चेतना की नई
कोपलें फूट रही थी। छात्र और युवा बिहार से गुजरात और फिर उत्तर भारत के
हिन्दीभाषी क्षेत्रों में आंदोलित था। अभी राममनोहर लोहिया का गैर कांग्रेसवाद का
नारा रूप लेने लगा था। उत्तर प्रदेश में संविद सरकार बन गई थी। लेकिन व्यवस्था के
खिलाफ बदलाव की इबारत लिखने का मन पूरा देश बना रहा था। इंदिरा गांधी ने बैंकों
राष्ट्रीयकरण और बाद में ‘प्रिवी पर्स’ हटाकर अपने
जनपक्षीय होने की कवायद की थी। 1971 में बाग्लादेश के विभाजन के बाद तो वह
नई ताकत के साथ उभर गई। अब नया नारा भी गढ़ दिया। गरीबी हटाओ। इंदिरा गांधी का
तानाशाह का रूप देखने को मिला जब हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी के 1971 के
चुनाव को असंवैधानिक करार दिया। राजनारायण ने रायबरेली चुनाव को चुनौती दी थी।
इसमें साबित हो गया कि इंदिरा ने इसके लिये धन, ताकत और
मतदाताओं को गलत तरीके से प्रभावित किया। चुनाव से ज्यादा खर्च क मामला भी बना।
कोर्ट ने उनके चुनाव न लड़ने पर छह साल की रोक लगा दी। 24 जून को यह
फैसला आया। 25 को जयप्रकाश नारायण ने दशे भर में
धरने-प्रदर्शन की घोषणा कर दी। इंदिरा गांधी ने 26 जून 1975 को
देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। इतना बहुत संक्षिप्त याद है जो बडबाज्यू ने मुझे
बताया। यह सब तब मेरी समझ में नहीं आता। एक तो यह पता नहीं था कि सरकारें चलती
कैसे हैं, दूसरा उन दिनों बग्वालीपोखर जैसे क्षेत्र में आज की तरह प्रतिदिन
अपडेट रहने जैसे साधन भी नहीं थे। उन दिनों हमारे स्कूल के दो अखबार आते थे।
अंग्रेजी में नेशलन हेराल्ड और हिन्दी में नवजीवन।
ये दोनों कांग्रेस के अखबार थे। ये भी हफ्ते में एक बंडल से डाक द्वारा आते थे। हम
तो कहां पढ़ते थे। बहुत छोटे थे। बडबाज्यू और पिताजी ‘साप्ताहिक
हिन्दुस्तान’, ‘धर्मयुग’, ‘नवनीत’,
‘रीडर
डाइजेस्ट’ जैसी पत्रिकायें भी पढ़ते थे। सौभाग्य से वे आज भी मेरे संग्रह का
हिस्सा हैं। इनमें कुछ बहुत महत्वपूर्ण हैं। एक है धर्मयुग का
अंक जिसमें आपातकाल पर सुप्रसिद्ध साहित्यकार रेणु से लेकर अन्य लोगों का प्रतिकार
है। खैर, आपातकाल पर तो बहुत सारी बातें हैं, जो मेरी एक
अप्रकाशित पुस्तक आपातकाल और पहाड़ में शामिल हैं।
इस लेख के माध्यम से मैं आपातकाल के अपने हिस्से को कहना चाहता हूं।
आपातकाल लगने से पहले भी मुझे कई बातें बहुत
कचोटती थी। तब तो बिल्कुल होश ही संभाला था। पाकिस्तान के साथ युद्ध या कहें
बाग्लादेश विभाजन। उस समय हमारे यहां बिजली नहीं थी। युद्ध छिड़ गया था। देश में
ब्लैक आउट की घोषणा हो गई। आदेश आया कि घरों में लाइट न जलायें। हमें घर वालों ने
बताया कि जहां लाइट जलेगी ‘भुटवा’ (जुल्फकार अली
भुट्टो) बम गिरा देगा। ईजा दिन में ‘लम्फू’ (मिट्टी तेल से
जलने वाला लैम्प। शायद लैंप से ही लम्फू बना होगा) के लिये कपड़ों की बाती बनाकर
रखती। उन्हें साफ-सुथरा कर जलाने के लिये तैयार करती। मुझे डर लगता कि अगर लाइट
जलेगी तो भुट्टो बम डाल देगा। मैं शाम होने से पहले स्कूल के पीछे बनी झाड़ियों में
‘लम्फू’ छुपा आता। यह बात तो आज तक भी पता नहीं चली कि
लाइट देखकर भुट्टो ने कहीं बम डाला हो, लेकिन भुट्टों का भय बहुत बाद तक मेरे
मन से गया नहीं। मुझे सुलाने और खिलाने के लिये भी ‘भुट्टो’ का
ही इस्तेमाल किया जाता। खैर, इंदिरा गांधी ने इस युद्ध से नया मुकाम
हासिल कर लिया था। कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरूआ ने तो नारा दे ही दिया था इंदिरा
इज इंडिया, इंडिया इस इंदिरा । उस समय विपक्ष
के जाने-माने नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने भी उन्हें दुर्गा का अवतार बता
दिया था। एक तरह से इंदिरा गढ़ी जाने लगी। गढ़ भी गई और पूजी भी जाने लगी। बाद में
उन्होंने इसे अपनी ताकत के रूप में इस्तेमाल भी कर दिया। आपातकाल लगाकर। फिर संजय,
वंशीलाल
और विद्याचरण मिश्र जैसे लोग सत्ता की ताकत में आ गये। संजय ब्रिगेड का आतंक पूरे
देश में छा गया।
आपातकाल में संजय ब्रिगेड का आतंक पूरे देश में छा गया था (फोटो साभार - गूगल) |
खैर, लगभग 18 महीने के
आपातकाल के समय पिताजी बहुत परेशान रहते। स्कूल को मिलने वाली सरकारी सहायता कई
कारणों से रोक दी जाती। वेतन भी कई महीनों बाद मिलता था। वेतन का संकट तो उस समय
इसलिये ज्यादा नहीं खटकता क्योंकि खाने-पीने की सारी चीजें घर पर ही हो जाती थी।
दो साल बाद फिर हम लोग भी कुछ बातों को समझने लगे थे। जब आपातकाल समाप्त हुआ तो
फिर लोगों में नहीं आशा का संचार होने लगा। संपूर्ण क्रांति का नारा अपना रूप लेने
लगा। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जनता पार्टी बन
गई थी। चन्द्रशेखर उसके अध्यक्ष थे। 1977 में चुनाव घोषित हुये देश भर में जनता
पार्टी की लहर चल पड़ी। हलधर किसान चुनाव चिन्ह था।
कांग्रेस का चुनाव चिन्ह गाय-बछड़ा था।
आपातकाल स्तिथि में इंदिरा का पूर्ण अधिकार (फोटो साभार - गूगल) |
हमारे यहां भी लोगों ने कांग्रेस का प्रतिकार किया। एक झोड़ा बना-
इंदिरा त्यर चुनाव चिन्हा गौरू दगड़ि बाछ
इंदिरा त्यर गौरू ब्यै रोछ संजया हैरो ग्वाव....
पूरे देश में नये नारे हवा में तैरने लगे। कुछ
नारे आज भी याद हैं-
-जमीन गई चकबंदी में, मकान गया हदबंदी
में,
द्वार खड़ी औरत चिल्लाए, मेरा मरद गया
नसबंदी में।
- संजय की मम्मी, बड़ी निकम्मी।
- बेटा कार बनाता है, मां बेकार बनाती
है।
- इमरजेंसी के तीन दलाल-संजय, वि़द्या,
बंसीलाल।
- आकाश से नेहरू करें पुकार, मत
कर बेटी अत्याचार।
- देखो इंदिरा का ये खेल, खा गई राशन,
पी
गई तेल।
- इंदिरा हटाओ देश बचाओ।
- सम्पूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी
इतिहास तुम्हारा है,
ये नखत अमा के बुझते हैं, सारा
आकाश तुम्हारा है।
दो राह समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
- जगजीवन राम की आई आंधी, उड़ जाएगी इंदिरा
गांधी।
- महंगाई को रोक न पाई, यह सरकार निकम्मी
है, जो सरकार निकम्मी है, वह सरकार बदलनी है...
इस चुनाव में जनता ने जनता पार्टी को भारी मतों
से जिताया। पहली बार हमने किसी चुनाव को बहुत अच्छे से देखा। अल्मोड़ा-पिथौरागढ़
संसदीय सीट पर डा. मुरलीमनोहर जोशी चुनाव लड़े। डा. जोशी को बग्वालीपोखर में देखने
और सुनने का मौका मिला। सही बताऊं तो पहली ही बार में मुझे जोशी बहुत दंभी और जनता
से दूरी बनाने वाले लगे। भाषण तो उनका इतना खराब था कि आज तक नहीं सुधार पाये। उस
समय अटलबिहारी वाजपेयी के बारे में कई मिथक जोड़े जाते थे। वैसे जितना मुझे याद है
लोग उनकी सबसे बड़ी विशेषता बताते थे कि वे अविवाहित हैं। मुझे बहुत अटपटा लगता था।
जब बाद में भी आपातकाल और उस समय की राजनीतिक स्थितियों का अध्ययन किया तो
अटलबिहारी मेरे लिये कभी आदर्श नहीं रहे। सही बताऊं मुझे आज तक उनका एक भी
सार्वजनिक और संसदीय भाषण अच्छा नहीं लगा। असल में अटलबिहारी एक गढ़े हुये नेता थे।
वे अपने भाषणों में कभी तथ्यात्मक बातें नहीं करते थे। वे देश की ‘मसखरी’
राजनीति
के प्रतिनिधि थे। आज भी बहुत सारे भाजपा के नेता उनकी जैसी ‘मसखरी’ करना
चाहते हैं। खैर, उस समय जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में ‘चैगुटा’
बन
गया था और जनसंघ भी उसका एक घटक था। आपातकाल के कारणों और उसकी लड़ाई में असल में
समाजवादी धारा के लोग थे। वही लड़ाई लड़ सकते थे। उस समय जार्ज फर्नाडीज, मधु
लिमये, मधु दंडवते, चन्द्रशेखर, कर्पूरी ठाकुर,
किशन
पटनायक जैसे नेता थे जिन्होंने बाद तक प्रभावित किया। भारी बहुमत से जनता पार्टी
सरकार जीत कर आ गयी। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बन गई थी।
मुझे अच्छी तरह याद है प्रकाशन विभाग ने ग्लेज पेपर पर एक खूबसूरत पोस्टर निकाला
था, जिसमें भारत सरकार का नया मंत्रिमंडल था। आपातकाल के बाद हमें ये सब
लोग नायक लगते थे। मोरारजी देसाई के अलावा विदेश मंत्री अटलबिहारी वाजपेयी,
सूचना
एवं प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी, रेल मंत्री मधु दंडवते, श्रम
मंत्री जार्ज फर्नाडीज, संचार मंत्री जनेश्वर मिश्र, पेट्रोलियम
मंत्री हेमवतीनन्दन बहुगुणा, कृषि मंत्री चैधरी चरण सिंह, स्वास्थ्य
एवं परिवार कल्याण मंत्री राजनारायण आदि के फोटो बहुत सुदर्शन लगते थे। मैंने इस
पोस्टर को अपने कमरे में लगाया था। मेरे सामान्य ज्ञान के लिये भी यह जरूरी था।
सरकार चलने लगी। मेरे बडबाज्यू बार-बार कहते थे यह सराकर नहीं चलेगी। जिस तरह का
यह गठबंधन है सरकार गिर जायेगी। उनकी बात सही साबित हुई। देश ने जिस गैर
कांग्रेसवाद के नारे से प्रभावित होकर जनता पार्टी को सत्ता सौंपी वह सिर्फ ढाई
साल में ही ताश के पत्तों की तरह बिखर गई। मेरे जैसे कक्षा नौ में पढ़ने वाले बच्चे
के लिये हालांकि इसका कोई मायने नहीं था, लेकिन बाद में जब 1980
में चुनाव हुये तो हमने फिर एक बार कांग्रेस और उससे उपजी राजनीतिक अपसंस्कृति को
पनपते देखा। जनता पार्टी टूट चुकी थी। आपातकाल के ‘शेर’ अब ‘चूहों’
की
मानिद अपने बिलों में घुस गये थे। उन्हें वहीं जाना था। जनसंघ जैसा विचार शून्य
राजनीतिक संगठन बदलाव की अगुआई कर भी नहीं सकता था। असल में आपातकाल में नायक बनने
का जो सिलसिला चला वह नायकत्व बरकरार रखने की जिद में टूट भी गया। जितने समाजवादी
थे उन्होंने अपनी टोपी बदल दी। समाजवादी टोपी बदलने में देर नहीं करते। आज तक भी
बदल रहे हैं।
कुल मिलाकर हमारे जैसे बच्चों की राजनीतिक
परवरिश राजनीति के एक ऐसे संक्रमण काल में हुई जब ‘संपूर्ण क्रांति’
का
नारा देने वाले लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसे नेता चैगुटा बनाकर
संघी और समाजवादियों को एक मंच पर
लाकर देश को बदलने का सपना देख रहे थे। जो नेता 1942 के भारत छोड़ो
आंदोलन का नायक रहा हो वह पता नहीं कैसे बैर और कैर को साथ रखने की बात सोच रहे
थे। खैर, इस पर तो चर्चा देशभर में हुई भी हम भी करेंगे, लेकिन
इन सबका हमारे लिये क्या सबक था? वह यह कि 1980 के दौर में
हमारी पीढ़ी का पहला साक्षात्कार इसी सामाजिक धारा के लोगों के साथ हुआ। 1979
में बग्वालीपोखर में आपातकाल से जेल से छूटने के बाद विपिन त्रिपाठी आये। उनके साथ
डा. डीडी पंत, जसवंत सिंह बिष्ट आदि थे। हम लोग तो विश्व
प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. डीडी पंत जी को देखने गये थे। ये लोग उस समय पृथक
उत्तराखंड राज्य की बात कर रहे थे। इनकी बातें हमें अच्छी लगी। उसी दौर में हमारे
यहां छात्र और युवा संगठन सक्रिय हो गये थे। वन बचाओ आंदोलन में ये लोग लगे थे। यह
आंदोलन पहाड़ में आपातकाल से पहले का था। इसे भी वन बचाओ संघर्ष
समिति के बैनर पर समाजवादी ही लड़ रहे थे। इन्हीं को आपातकाल में बंद भी
किया गया। 1978 में उत्तराखंड संघर्षवाहिनी का गठन भी हो चुका
था। एक तरह से हमारी पीढ़ी के लिये सामाजिक और राजनीतिक रास्ता तैयार था। 1984
में ‘उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी’ ने ‘नशा नहीं रोजगार
दो’ आंदोलन शुरू किया। हम बारहवीं में चले गये थे। गगास घाटी में यह
आंदोलन बहुत चला। हम लोग भी उसमें शामिल हो गये। डा. शमशेर सिंह बिष्ट, पीसी
तिवारी, प्रदीप टम्टा, डा. शेखर पाठक, राजीव लोचन साह,
गिर्दा,
राजा
बहुगुणा, चन्द्रशेखर भट्ट, दिनेश तिवारी, प्रताप बिष्ट
आदि से परिचय होने लगा। जो सबसे बड़ा परिवर्तन आया वह था समाजवादी नेता स्व. विपिन
त्रिपाठी का सान्निध्य। उनके साथ दो दशक तक रहने का अवसर मिला। आपातकाल पर यह सब
लिखने की ताकत भी उनकी प्रेरणा है। मैं असल में उन्हें आपातकाल का सबसे बड़ा
प्रतिनिधि मानता रहा हूं। उन्होंने आपातकाल के नायकत्व से बाहर निकलकर जनता के साथ
अंतिम समय तक खड़े रहने का साहस किया। त्रिपाठी जी पर तो पूरी किताब ही लिखी है।
मेरे हिस्से का आपातकाल तो इतना है कि ‘भुट्टो’ के डर से शुरू
हुई अवचेतना से हम आज जीवन के पाचंवे दशक में भी अघोषित आपातकाल से डरे हैं। जो
लोग कभी आपातकाल लगाने वाली इंदिरा को देवी बता रहे थे,
उन्होंने
आज कैसे प्रतिनिधि हमें सौंपे इस पर विचार करना होगा। और यह भी कि जो लोग समाजवाद
की बात कर रहे थे, जो लोग आपातकाल में अपनी बेटियों का नाम ही ‘मीसा’
रख
देते हैं उनके फार्म हाउस खंखाले जा रहे हैं। उत्तराखंड में जो सत्ताधारी
उत्तराखंड को शराब और खनन माफिया के हवाले करने पर उतारू हैं। अभी अपने विज्ञापन
में उन्होंने ‘रामकाज’ की बात कही है।
इसलिये अब मुझे भुट्टो’ से ज्यादा डर रामकाजियों से
लगने लगा है जो हर काल-हर समय में किसी न किसी रूप में आपातकाल को लेकर खड़े हैं।
क्या इस डर को निकाला जा सकता है...? अगर हां तो आपातकाल को तोड़ना तो होगा
ही...!
(एक निवेदनः- इसमें कई बातें ऐसी भी हैं जो मुझे
बहुत बाद में पता चली हैं, लेकिन बालमन में अवचेतन में उसी तरह थी
इसलिये उसे तारतम्य बनाने के लिये लिखा गया है। इसे काल-समय के साथ नहीं, बल्कि
भाव के साथ पढ़ा जायेगा तो मुझे अच्छा लगेगा।)
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं |ये जरूरी नहीं कि सियासी ठिया उनसे सहमत हो...!
यह लेख वरिष्ठ पत्रकार श्री चारू तिवारी (चारू दा ) की एफबी वाल से लिया गया है...!
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