अब तक के सियासी चेहरे |
खैर, इन सब अपवादों
के बाद चली आलाकमान की ही और भाजपा के केंद्रीय नेताओं ने स्वामी के बुजुर्ग हाथों
और गैर-राज्य निर्वाचित के कन्धों में सौंप दिया एक नन्हा सा उत्तरांचल । विडंबना
देखिये कि इस राजनैतिक उठापटक के बीच नन्हें उत्तराखंड की किस्मत ने मानो इसकी
पुनरावृत्ति को ही अपनी नियति बना दिया। अगले सत्रह साल, यानि कि अब तक
यही सब कुछ नौ बार दोहराया जा चुका है और हालात पर गौर किया जाए तो राज्य के
समाजिक और राजनीतिक दोनों पटलों पर भविष्य और पहाड़ की गरिमा भी बहुत ज्यादा सुखद
प्रतीत नहीं हो रही ।
उत्तराखंड के साथ जन्मे दो अन्य राज्य झारखंड व छत्तीसगढ़ आज कहां हैं, और उत्तराखंड
किस स्थान पर खुद को देखता है, यह किसी से छिपा नहीं । इन सत्रह सालों में उत्तराखंड ने जब-जब आगे
बढ़ने को कदम उठाए, राजनैतिक
अस्थिरता ने उसे अनिश्चतता, अराजकता और भटकाव की ओर ही धकेला और निजी सियासी स्वार्थ के अंतरद्वंध
में विकास हासिए पर खिसक गया। जिन उद्देश्यों को लेकर अलग राज्य की अवधारणायें
उकेरी गयी थीं, वे पता नहीं कब
अंधेरे में गुमनाम हो गयी । इस बदतर स्थिति के लिए सूबे में व्यापक जनाधार रखने
वाली हर सियासी पार्टी बराबर की जिम्मेदार है। यह इसलिए भी, क्योंकि सूबे
में कोई भी ऐसी पार्टी नहीं है जिसने इस वक्फे में सत्ता का स्वार्थी भोग ना किया
हो। कांग्रेस और भाजपा को तो लगभग बराबर वक्त मिला सत्ता संभालने के लिए, साथ ही पृथक
उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर खुद को राज्य का सबसे बड़ा हितैषी बताने वाले
उत्तराखंड क्रांति दल के अलग-अलग गुटों ने भी सत्ता की मलाई में हिस्सेदारी पाई।
यहाँ तक कि बहुजन समाज पार्टी के सत्ता में होने की कल्पना कुछ साल पहले तक कोई
नहीं कर सकता था लेकिन सत्ता के गठबंधन मोह ने यह भी कर दिखाया और बसपा ने
कांग्रेस के साथ उत्तराखंड की सरकार में साझीदार तक का मोह लिया ।
यह राज्य प्रगति के पथ पर अपने नन्हें लड़खड़ाते कदम बढ़ाता भी तो कैसे, क्योंकि महज
सत्रह सालों में उत्तराखंड को इस कदर बदहाल बना देने के लिए जिम्मेवार कांग्रेस और
भाजपा की प्राथमिकता में राज्य कभी रहा ही नहीं। इस दौरान इन दोनों दलों की
सरकारों के निजामों का एकमात्र एजेंडा अपनी कुर्सी की सलामती के लिए दिल्ली में
बैठे इमामों को खुश रखना ही रहा । सूबे विचलित अवस्था का अब तक का राजनैतिक इतिहास
इस बात का पुख्ता सबूत भी है। कांग्रेस हो या फिर भाजपा, दोनों ही
पार्टियों ने हमेशा मुख्यमंत्री ऊपर से ही थोपा, स्थानीय जनादेश
के बाद उभरे नेतृत्व से उसे कोई वास्ता नहीं रखा । जरा शुरुआत से आकलन कर देखिए, पूरी सच्चाई
सामने आ जाती है कि राज्य की पहली अंतरिम सरकार गठन के वक्त प्रदेश भाजपा नेताओं
के भारी विरोध के बावजूद केंद्रीय नेतृत्व ने नित्यानंद स्वामी को मुख्यमंत्री की
कुर्सी सौंप दी और स्वामी को कमान देने का नतीजा यह हुआ कि पहले ही दिन से सरकार
में अस्थिरता नजर आने लगी। पार्टी के अंदर का विरोधी गुट स्वामी को कठघरे में खड़ा
करने का कोई मौका नहीं छोड़ा । इसकी परिणति साल गुजरने से भी पहले स्वामी की विदाई
के रूप में हुई और मुख्यमंत्री बनाया गया भगत सिंह कोश्यारी जी को। कोश्यारी जी का
कार्यकाल चंद महीने का ही रहा क्योंकि भाजपा वर्ष 2002 में संपन्न
पहले विधानसभा चुनाव में सत्ता से बाहर हो गई। संभवतया, भाजपा का महज
सवा-डेढ़ साल के कार्यकाल में दो मुख्यमंत्री सूबे को देना अवाम को रास नहीं आया
और इसी वजह से राज्य के पहले विधानसभा चुनाव में सत्ता का स्पर्श करने में कामयाब
रही कांग्रेस में भी मुख्यमंत्री पद को लेकर खासी उठापटक रही । मुख्यमंत्री पद के
प्रबल दावेदार और तब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हरीश रावत के नेतृत्व में कांग्रेस
ने चुनाव लड़ा मगर उनकी दावेदारी को दरकिनार कर कांग्रेस आलाकमान ने तत्कालीन
नैनीताल सांसद श्री नारायण दत्त तिवारी को यह जिम्मेदारी सौंप दी। लाजिमी था कि
रावत गुट को को रास नहीं आया और आंतरिक तौर पर तिवारी जी का विरोध-विमर्श शुरू हो
गया। यह सिलसिला पूरे पांच साल चला, और पहली बार नन्हें राज्य के इतिहास में अब तक यह अंकित भी हुआ कि एक
मुख्यमंत्री पंचवर्षीय योजना का पुरे पांच साल उपयोग किया ,और यह बात कोई
आनों के भाव नहीं कि अपने लंबे सियासी तजुर्बे के बूते ही तिवारी जी की कुर्सी कोई
हिला नहीं पाया।
वर्ष 2007 के विधानसभा
चुनाव में जनादेश गया भाजपा के पक्ष में लेकिन यहां भी खेल 'मैं ही बनूंगा
सीएम' खेला जाने लगा।
नेता विधानमंडल दल के चयन को लेकर जो बवाल मचा, उसने भाजपा की
अनुशासित पार्टी की छवि को तार-तार कर दिया। भाजपा ने भी किसी निर्वाचित विधायक की
बजाए पूर्व केंद्रीय मंत्री और तत्कालीन गढ़वाल सांसद भुवन चंद्र खंडूड़ी की
ताजपोशी मुख्यमंत्री पद पर कर दी। आलाकमान के हस्तक्षेप से खंडूड़ी को कमान तो मिल
गई मगर अपनों द्वारा ही बोए कांटों ने उनका सफर इतना मुश्किल बना दिया कि सवा दो
साल बाद वह सत्ता से रुखसत होना पड़ा और फिर मुख्यमंत्री पद को लेकर भाजपा में फिर
रार होनी शुरू हो गयी और इस बार आलाकमान का सजदा मिला डा. रमेश पोखरियाल निशंक जी
को। निशंक जी राज्य के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने और कई सामाजिक सफलताओं के बीच
कुंभ प्रकरण ने उनकी स्वच्छ व क्रांतियुक्त छवि को धूमिल करने की कोशिश जारी रही
और उनका सफर भी महज सवा दो साल का ही रह सका ।
एक बार फिर अंतर्कलह से गुजरने के बाद केंद्रीय नेतृत्व ने ईमानदार
व्यक्तित्व खंडूड़ी जी को ही दोबारा मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी। खंडूड़ी जी का
यह कार्यकाल भी कुछ ही महीनों का रहा क्योंकि अंतरद्वंध ने 2012 के विधानसभा
चुनाव में भाजपा की नैया कुम्भ में ही समा गयी । नतीजतन, कांग्रेस को
सरकार बनाने का मौका मिला लेकिन मुख्यमंत्री ऊपर से भेजने की परंपरा अब भी नहीं
टूटी। इस बार कांग्रेस नेतृत्व ने टिहरी सांसद विजय बहुगुणा पर भरोसा जताया। और
परिणाम भी वही हुआ, जैसा अंदेशा
था। इस बार पुनः मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार हरीश रावत दरकिनार कर दिया गया
और उनके समर्थकों ने जोरदार विरोध दर्ज कराया।
खेर, 2013 मध्य वर्ष में
उत्तराखंड को आपदाओं ने पहाड़ को जमीदोष करने का सडयन्त्र रचा और इस आपदा ने
उत्तराखंड राज्य को 29 राज्यों के
विकासशील मैराथन से लगभग बाहर ही कर दिया, राज्य का जन-जीवन थम चूका था l ऐसा लग रहा था नीर मात्र बहने वाली नदियां-नालों की लहरें विशालका्य
समुद्र की लहरों से प्रेरणाबध थी l
एक बार फिर राज्य आपदा का शोर विधानसभा और विपक्ष ने कुर्सी के कुरैशी
के विरुद्ध राग अलापना शुरू कर दिया और सामाजिक पटल पर भी इसका प्रभाव देखा गया और
कांग्रेस के अंतर्कलह की परिणति फरवरी 2014 में सरकार में फिर नेतृत्व परिवर्तन के रूप में हुई और पौने दो साल
मुख्यमंत्री रहे बहुगुणा की जगह कांग्रेस ने केंद्रीय मंत्री हरीश रावत को
मुख्यमंत्री बनाकर उनकी मुराद आखिरकार पूरी कर ही दी। रावत को मुख्यमंत्री बने नौ
महीने हो चुके हैं मगर आलम यह था कि विकास में रफ़्तार तो थी लेकिन धीमी । जाहिर था
कि गत वर्षों से राज्य में माफियाओं का जमावडा अधिक हो चुका था राज्य सरकार की
माफियाओं के रण में घेराबंदी हो चुकी थी l
इस वर्ष 2017 के शुरुआत में
चुनावी बिगुल बज चूका था मोदी मेजिक के आगे श्री रावत की छवि दो विधानसभा सीटों से
रोंद दी जा चुकी थी और फिर से नाबालिक राज्य किसी नए मुखिया की गौद में जा रहा था l लेकिन इस बार
एक राज्य को 70 विधायकों में
से एक मुखिया मिला और होली के गीतों के बाद कछुवा चाल से राज्य फिर एक नई गति से
आगे बड़ने की जद्दोजेहद में लगा हुआ है l कुछ रैबारियों के जरिये बीते दिनों में इसकी रफ्तार भी नापी गयी थी l
लेकिन, निष्कर्षित
स्तिथि यह है कि राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के केंद्रीय नेतृत्व के अत्यधिक
हस्तक्षेप ने उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य को पूरे सत्रह साल तक अस्थिरता, अराजकता, अनुशासनहीनता
के जाल में उलझा कर रखा और भविष्य भी इस वर्तमान से कोई बहुत जुदा नजर नहीं आता कि
जिस राज्य की परिकल्पना हम सबने की थी आज उस राज्य में किसी वृद्ध के अंतिम
संस्कार के लिए चार कंधे नहीं, किसी नवजात को जन्म देने वाली माँ की पीड़ा समझने वाला कोई नहीं, उजड़े घरों और
स्कूलों को खोलने वाला कोई नहीं, बेरोजगारी को नशे से निकलने वाला कोई नहीं, और ना जाने
कितने ज्वलंत सवालों के जवाब मांगता है ये पहाड़...?
Script By : हिमांशु पुरोहित ' सुमाईयां '
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