इसमें कोई दोहराए नहीं
कि डिजिटिकरण के ज़माने में इंसान एक कदम आगे ही है, क्योंकि वो विचारों का समागम और मंथन करने
से पहले ही किसी भी कार्य को अंजाम देने में आतुर रहता है | वह इस आधुनिकीकरण में इतना व्यस्त हो गया
है कि बिना किसी स्पष्टीकरण के वह सोशल मिडिया के शब्दों जंजाल के में इस कदर फंस
गया है कि उसको सच और झूठ की उपमा तक का भी ज्ञान नहीं रहा | यदि राजनीतिक नजरिये से देखा जाये तो सोशल
मिडिया आज की राजनीति का प्रेरणास्रोत है | व्यक्तिगत तौर पर राजनीतिक दलों ने भी सोशल
मिडिया प्रभारी के पद नियुक्त किये हैं | जिनका कार्य मात्र राजनीतिक और
गैर-राजनीतिक कार्यों की जमीनी रूप रेखा को अपने-अपने दलों के हिसाब से अवलोकन, अपवृद्धि और प्रकोपन करना होता है | फिर उसको सोशल मिडिया के जरिये समाज में इस
कदर फैलाया जाता है कि वह ही सत्य की भूमिका से ओत-प्रोत है | जिसमें कुछ हद तक सत्यता जरुर होती है
लेकिन उसमें ऐसे कई अपवाद (फेक न्यूज़) होते हैं जो समाज में मानसिक और शारीरिक
हिंसा को बढ़ावा देते हैं और निश्चित ही रूप से अपवाद(फेक न्यूज़) आज के डिजिटिकरण
युग में चिंता का एक ऐसा मजमून है, जिस पर कई खंड और कलम घिसी जा सकती हैं
लेकिन फिर भी इसकी फैलती हुई जड़ पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता | जिस तरीके से इसका जलावतर किया जा रहा है
वह अपने आप में ही चिंतनीय है क्योंकि एक निष्पक्ष व समतावादी लोकतंत्र में, सार्वजनिक बहसों में सिर्फ एक ही सत्य को
तय कर देना सार्वजनिक हितों, विचारों
को त्रस्त कर सकता है |
फेक न्यूज़ आपके इर्द-गिर्द घूमती रहती है |
उदाहरण के लिए, तथ्यहीन (नकारात्मक या सकरात्मक नहीं)
रिपोर्ट से लेकर राजनीतिक सिद्धांता, या एक गलत या मात्र भ्रमित करने वाली ख़बर
जो विचारों को एकतरफा निर्मित करने में समक्ष हो, ऐसे अपवादित विवरण को फेक न्यूज़ कहा जा
सकता है | गत डिजिटिकरण इतिहास में घटित घटनाओं की
संज्ञा लें तो हमारे लोकतंत्र में, तथ्यहीन, झूठे व आपत्तिजनक और अपवादित विचारों से
प्रभावित होकर अराजक असहनशील बन जाती है |
दूसरी तरफ, फेसबुक " फेक न्यूज़ रूम " नाम
के प्रचलित इस वैश्विक दर्रा मात्र विचारों और विकारों का जुमला है | जहां अधिकतर आधी-अधूरी जानकारियों व झूठी
जानकारियों से सामाजिक वर्ग में सक्रिय लोगों को भ्रमित करने की कोशिश की जाती है |
वैसे ये फेक न्यूज़ है
क्या ?
उदाहरण के लिए, अभी गत दिनों पहले रुद्रप्रयाग जिले के
अगस्तमुनी ब्लॉक में किसी गैर-स्थानीय समुदाय(धर्म) के व्यक्ति द्वारा स्थानीय
समुदाय की नाबालिक के साथ बलात्कार की अफवाह फेसबुक " फेक न्यूज़ रूम "
में इस कदर फ़ैल गयी कि अगस्तमुनी क्षेत्र जहां आज तक धारा 144 नहीं लगी थी, वहां धारा 144 लगा दी गयी | आलम यह बिगड़ गया कि स्थानीय निवासियों
द्वारा गैर-स्थानीय समुदाय(धर्म) की दुकानों, घरों आदि में आगजनी कर दी गयी | समाज में पूर्णतः अशांति का माहौल फ़ैल गया
था, मात्र इस वजह से कि किसी व्यक्ति ने अपनी
फेसबुक “फेक न्यूज़ रूम” पर यह पोस्ट कर दिया कि सम्बंधित क्षेत्र
में किसी मुस्लिम समुदाय के नवयुवक ने स्थानीय नाबालिक लड़की के साथ दुष्कर्म किया
और इस घटना से सम्बंधित एक वायरल फोटो भी अपलोड की गयी जिसमें कहीं से भी बलात्कार
या छेड़छाड़ की घटना प्रदर्शित नहीं हो रही थी |
इससे पहले सर्वोच्च
न्यायलय के फैसले पर दलित वर्ग “ भारत
बंद “ जैसे देश के शत्रुवत धरने और नारों के साथ
सड़कों पर आगजनी करते नजर आये | जिसमें
भी सोशल मीडिया द्वारा आराजकता फ़ैलाने की कोशिश की गयी यह कह के कि – सर्वोच्च न्यायलय का फैसला आरक्षण के खिलाफ
है | सर्वोच्च न्यायलय आरक्षण खत्म करना चाहती
है, बल्कि ऐसा बिल्कुल भी नहीं था | सर्वोच्च न्यायलय ने एससी-एसटी ऐक्ट में
कुछ संशोधन किये थे, जिसमें
नये दिशा निर्देशों में न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि एससी-एसटी एक्ट के हो रहे
दुरुप्रयोग के बचाव लिए संशोधन जरूरी था |
इसके बाद 10 अप्रैल को
जनरल और ओबीसी संगठनों द्वारा भारत बंद की मांग की गई थी । इसे लेकर सोशल मीडिया
पर पोस्ट और मेसेज वायरल हो रहे थे । इनमें 'आरक्षण हटाओ' की मांग करते हुए देशभर में किए जा रहे
प्रदर्शन में शामिल होने के लिए कहा जा रहा था । इसके बाद सोशल मीडिया पर एक मैसेज
वायरल हुआ कि दलितों के विरोध में सवर्ण जाति के लोग 10 अप्रैल को भारत बंद रखेंगे
। हालांकि, किसी
बड़े संगठन की ओर से इस बंद का कोई ऐलान नहीं किया गया था ।
आज कल बेवजह ही किसी के मौत की खबर सोशल मिडिया पर वायरल होने लगी है जैसे हाल में ही पूर्व
प्रधानमंत्री श्री अटल जी या पूर्व उत्तरप्रदेश व उत्तराखंड मुख्यमंत्री तिवारी जी, लोकगायक नेगी जी या गायक गजेंद्र राणा आदि
की मौत की खबर रातों रात फैला दी गयी थी |
ऐसे ना जाने कितने सारे
अपवाद हैं जिससे समाज तुरंत भ्रमित हो जाता है और सोशल मीडिया में इस प्रकार के
अपवादित लेख प्रसारित कर हिंसा को बढ़ावा देता है |
यूं तो इन विषयों पर
स्पष्टता के अभाव में लंबे-चौड़े और कठोर नियंत्रण लगाए जा सकते हैं | इससे पत्रकारों के भीतर खटपट हो सकती है | फेक न्यूज़ के संदर्भ में कभी कभी पत्रकारीय
कौशल से निपुण प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान भी गलती करते दिखाई देते हैं | यदि इसमें नियत्रंण किया जाये तो पत्रकारों
को हर ख़बर जो वह दिखा रहा है उसकी सत्यता की गारंटी देने को विवश किया जाने लगेगा, नतीजन
मीडिया के भीतर सेल्फ सेंसरशिप भी बढ़ने का अंदेशा पैदा हो जाएगा | जहां तक आलोचकों की बात है तो वह भी आलोचना
करने में हिचकेगा, भले
ही उसे यकीन हो कि जो जानकारी उसके पास है, वह असत्य नहीं है |
हालांकि, फेक न्यूज़ को नियंत्रित करने की कोई भी
कोशिश अन्य चुनौतियों को दावत देंगी | जैसे कि तथ्य, विचार
और सत्य में फर्क कैसे किया जाएगा ? पूरी तरह से व्यंग्यात्मक तरीके से पेश की
गई चीज़ को भी न्यूज़ (जो गलत है) समझे जाने का खतरा हमेशा मौजूद रहेगा | नतीजन यह सब क़ानूनी दांव पेंचों के दायरे
में आ जाएगा | एक
चुनौती यह सुनिश्चित करने की होगी कि फेक न्यूज़ की आड़ में कहीं वैकल्पिक
विमर्शों को न खत्म कर दिया जाये | अक्सर आम लोगों के बीच एक सामान्य राय को
पब्लिक फैक्ट मान लिया जाता है (जैसे आये दिन चुनावी एग्जिट पोल के नतीजे आते हैं
न्यूज़ रूम से) |
अंत में यह कहना और
समझना जायज होगा कि फेक न्यूज़ रूम वालों को नियंत्रित करने के कोशिश में देश, राज्य, कानून, धर्म और अधिकारों को सत्य तय करने की
भारी-भरकम जिम्मेदारी सौंपने से बचना चाहिए और सोशल मिडिया पर प्रसारित किसी भी
जानकारी को स्पष्ट और सत्यापित करके ही उस पर अपने विचार रखने चाहिए |
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