बंद भारत में महाभारत के खुदमुख़्तार दंगाई...
हिमांशु पुरोहित ' सुमाईयां ' |
कहीं एम्बुलेंस जल रही थी, तो कहीं एम्बुलेंस को रोकने से नवजात सहित
दो की मौत हो जाती है, किसी के सिर से खून बह रहा था तो कोई नंगी तलवारें लिए मौत
का तांडव कर रहा था, एक जगह बच्चे को स्तनपान करवा रही माँ और बच्चे को घायल कर
दिया जाता है, जनता की सुरक्षा में तैनात सुरक्षाकर्मी की जान के भी लाले पड़ जाते
हैं, चौकियां जला दी जाती हैं, चारों तरफ आगजनी, जलते वाहन-दुकानें, उपद्रवियों
द्वारा महिलाओं से छेड़छाड़, तमंचों और बंदूकों की आवाज, सड़क से लेकर रेल यातायात
ठप, मुर्दा कफन ओढे लाशें, चारों तरफ कर्फ्यू जैसा माहौल और जाने क्या-कैसी स्तिथि
और घटना घटी होगी जिसको शब्दों की छलरचना में सजाया नहीं जा सकता |
यह सब मंजर घटित हुआ कल यानि अप्रैल 2, 2018 को | जिसकी वजह सुप्रीम कोर्ट द्वारा SC/ST Act
में संसोधन किया जाना था और जिसकी किरण-केंद्र भारत का आरक्षित समाज “दलित समाज”
था | भारत में दलित समाज द्वारा अप्रैल 2 को सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर “एक दिवसीय
भारत बंद “ का विरोध प्रदर्शन था | देश के कई हिस्सों में दलित समाज और नेता एक
दिवसीय विरोध प्रदर्शन में उतारू थे | लेकिन विरोध प्रदर्शन इतना भयवाह हो गया कि मंजर
“भारत बंद” – “महाभारत के कुरुक्षेत्र” जैसा दिखने लगा | क्योंकि
चारों तरफ हिसां, उपद्रव, बहता खून, घायलों की आवाजे, लाशें ( बेहोश-घायल ), रोते-बिलखते
बच्चे, तोड़फोड़, आगजनी पसरी
हुई थी | सुरक्षाकर्मियों की सुरक्षा भी खतरे में थी क्योंकि चारों तरफ दंगों से
हुई अफरातफरी के बदल छा चुके थे |
आखिर दलित समाज की नाराजगी की वजह क्या है...?
भारत बंद की अपील करने वाले अनुसूचित जाति-जनजाति संगठनों के अखिल
भारतीय महासंघ के सदस्यों का कहना है कि " इस क़ानून से दलित समाज का बचाव
होता था | एससी-एसटी एक्ट के तहत रुकावट थी कि इस समाज के साथ ज़्यादती करने पर
क़ानूनी दिक्कतें आ सकती थीं l लेकिन सुप्रीम कोर्ट के गत फ़ैसले से ये रुकावटें पूरी तरह ख़त्म हो
गई हैं l जिससे इस वर्ग का प्रत्येक व्यक्ति दुखी और आहत है और ख़ुद को पूरी तरह
से असुरक्षित महसूस कर रहा है l भारत बंद की मांग करने वाले इस समाज के लोग अमन
चैन और अपनी और अपने अधिकारों की सुरक्षा चाहते हैं और संवैधानिक व्यवस्था को
ज़िंदा रखने की मांग करते हैं l ‘’
उपद्रवियों ने मचाया मौत का खुनी तांडव |
यदि गत दिनों की घटना देखी जाये तो ऊना में मारपीट की वारदातें, इलाहाबाद
में हत्या, सहारनपुर में घरों को जला देना और भीमा कोरेगांव
में दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा या उत्तराखंड के बागेश्वर जिले में दलित का आटा छूने पर उसका सिर धड़ से अलग करने जैसी घटनाओं से देश के विकास के लिए समाज के इस वर्ग
के लोगों में असुरक्षा की भावना पैदा हो गई हैं l
लेकिन इन हिंसा रूपी घटनाओं से सवाल यह पैदा होता है कि ऐसी हिंसा
समाज के हर वर्ग के साथ हो सकती है और होती भी आयी है l अपराध नामक शब्द किसी
विशेष वर्ग या आरक्षित वर्ग का मोहताज नहीं l यह मात्र एक राजनीतिक प्राक्कलन,
दरिद्रता और मुर्खता की रूप-रेखा है l यदि समाज में उत्पन वर्ग विच्छेद व वर्ग भेद
ही समाप्त हो जाये तो इस प्रकार की हिंसा घटित होनी कम हो जायेंगी l यदि अन्य
विकासशील देशों से भारत की तुलना की जाये तो भारत में इस तरह की जातीय दुर्घटनाएं
सर्वाधिक होती हैं, जिसका प्रेरणा स्रोत मात्र राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं l
जहां एक तरफ देश की आर्थिक प्रबलता धीमे-धीमे से ही मगर आगे बढ़ रही है वहीं इस तरह
की घटनाओं से देश में अशांति के साथ जन-हानि होती है और साथ में विरोध प्रदर्शन
में हो रहे दंगों में करोड़ो रुपयों का देश में नुकसान भी होता है l
क्या यह सब जरूरी था...?
यदि देश की अखंडता, सौहार्यता, एकता की बात करें तो देश में जातीय
आरक्षण समाजिक बहिष्कार का सूचक है l यह भारत अब 21वीं का भारत है जो समाज की बढ़ती
साक्षरता, समृधि, अनेकता में एकता और देश
को अमानवीय ताकतों से बचाने का प्रतीक है लेकिन आरक्षण-वाद रूपी राजनीति ने देश को
जातीय समीकरण में बांट दिया है l यह बिल्कुल जरूरी नहीं कि देश के विभिन्न वर्गों
में जातीय असामनता दिखाई जाये l जिस तरह सड़कों पर उपद्रवियों ने मौत का तांडव किया
उससे आरक्षण के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की रियायत देना उचित ही नहीं होगा l
एक समृद्ध भारत को बनाने के लिए देश के हर राज्य, जाति, वैयक्तिक तौर
पर सबको देश की अखंडता तो बनाये रखना जरूरी है l दलित समाज को यह समझना चाहिए कि
सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर “भारत बंद” जैसा विरोध प्रदर्शन सुप्रीम कोर्ट की
अवमानना के तहत आता है और देश में अशांति, उपद्रव, देश की सम्पत्ति हानि देशद्रोह
के अंदर आता है l इसलिए यदि विरोध प्रदर्शन ही करना है तो शांति पूर्ण तरीके से भी
किया जा सकता है और “भारत बंद” जैसा अपमान जनक शब्द उपयोग नहीं किया जाना
चाहिए l क्योंकि वर्ग बाबा साहेब को अपना
आदर्श मानता है उसको सर्वोच्च न्यायलय के फैसले को इस तरह अपमानजनक तरीकों से
विरोधाभासी नहीं होना चाहिए l फ़िलहाल सारी कवायदी आतंकरूपी घटनाक्रम को देख, फ़िलहाल SC/ST Act की याचिका लेकर केंद्र सरकार पुनः सुप्रीम
कोर्ट के दरवाजे पर गयी है l
जिस तरह देश निरंतर प्रगति के पथ
पर कायम है उस लहजे से देश का हर वर्ग विकासशील प्रगति का सहायक है, लेकिन यदि देश
के आंतरिक स्तिथि को समझा जाये तो यह अब भी जाति-धर्म, समाज में बंटा हुआ है l हर साल
किसी ना किसी जाति या धर्म के अनुचरों से जाति व धर्म के सापेक्ष आरक्षण की मांग
उठती रहती है l यदि देश की अखंडता व सातत्य के चश्मे से देखा जाये तो आरक्षण की
जरूरत दलितों, जाटों, मुस्लिम वर्ग आदि किसी को उतनी नहीं जितना यह राजनीतिक विलाप
करते हैं l
21वीं सदी के भारत में आरक्षण की
जरूरत किसको है ?
आरक्षण के मोहताज |
आरक्षण की जरूरत यदि किसी को है
तो वो उस परिवार को है जिसका बेटा/पति देश की सुरक्षा में अपने प्राणों का बलिदान दे
देता है और उसकी मिट्टी तिरंगा ओढे उसके आंगन में आती है l उस बेटी को आरक्षण की
जरूरत है जिसके सपने MBBS/IS/IFS/IAS बनने के हैं
लेकिन वो अपने परिवार की गरीबी की बंदिशों में बंधी है l आरक्षण की जरूरत
उन बच्चों को है जो किताबों से दूर हैं, जो देश का भविष्य होने साथ-साथ सडकों पर
भीख मांगने पर मजबूर हैं l आरक्षण की जरूरत उन माताओं-बहनों को हैं जिनके पास पैसा
नहीं होता गर्भ में पल रहे बच्चे का सुरक्षित ऑपरेशन करवाने के लिए l आरक्षण की जरूरत देश की रीढ़ की
हड्डी कहे जाने वाले किसान को है जो देश का अन्न दाता होने के बावजूद सड़को पर अपनी
मांगों को लेकर आन्दोलन कर रहा है, बर्बाद फसल और कर्ज के दवाब में आत्महत्या कर
रहा है |ऐसे ना जाने
कितने विधि-विवरण
हैं, जिनको आज के भारत में आरक्षण की सख्त जरूरत है l
मुस्लिम
वोट बैंक जैसा ही दलित वोट वोट बैंक भी बन रहा है राजनीतिक मोहरा....
देश में जिस प्रकार मुस्लिम वर्ग के लोगों राजनीतिक मोहरा बनाया गया
था उसी आधार पर दलित वर्ग को भी राजनीतिक मोहरा बनाया जा रहा है l देश में कई ऐसे
राजनीति दल हैं जो अपने वोट बैंक के आधार को नियंत्रण में रखने के लिए खुद को दलित
समाज का हितैषी बताते आये हैं l देश में जब भी चुनावी छलरचना शुरू होती है, देश
हिन्दू-मुस्लिम, दलित वाद-अपवाद अन्य समीकरणों में फंस जाता है l उत्तर प्रदेश,
गुजरात चुनाव में भी दलित वाद-अपवाद चरम पर था l सभी राजनीतिक दल जो खुद को देशभक्त
कहते हैं ऐसे वाद-विवादों से एक दुसरे पर आरोप-प्रत्यारोप जैसी घिनौनी राजनीति
करते हैं l अत: समाज को इस तरह के राजनीतिक प्रपंचों में न उलझ कर स्वयं को और देश
को सशक्त बनाना जरूरी है l जिससे जातीय भेद की सियासी दुकानें बंद हो सकें l
क्योंकि किसी ने सही कहा है कि –
बस दो चार अफवाहें उड़ा दो, यहाँ जब चाहे दंगा करा दो
रोटी-वोटी लोग भूल जायेंगे, बस मंदिर-मस्जिद मुद्दा उठा दो
क्योंकि,
सियासत का खास दाव है यही, चुनाव आये तो सब को लड़ा दो.....
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